मेरी यादों का शहर

पुराना सा रिश्ता है एक
मेरा मन बस्ता है जहां
कच्ची पक्की सी पगडंडियां
बस पकड़ मेरा मन चड़ता है जहां ।।

मेरे गांव के मेले में आती है,
वाहा से दुकानें अक्सर सारी
पक्की सी दुकानों की झलक
मोल भाव करती सी ये ज़िंदगी
रोनक होती है बाजारों में जहां।।

माना कि थोड़ा शोर ज्यादा है
दिलो में बड़ों का मान आधा है
पर आधुनिकरण का ये शहर
कुछ नया से अंदाज से अपने
दिल को मेरे बहलाता सा है।।

चमचमाती गाडियां यहां पर
दिन रात हॉर्न बजाती है बेहद,
कमाने की चाहत लिए हुए
पूरा दिन भर पसीने मैं भीगे
मेरे साथ मेरी कमीज़ यहां।।

जब अपना गाव छोड़ के आया था
इसी शहर ने मुझे गले लगाया था
कभी मैंने भी शहर में डेरा जमाया था,
वो आज भी वैसा ही है तेज़ रफ़्तार भरा
मेरी यादों का शहर , जैसा में छोड़ आया था।।

प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर मध्य प्रदेश