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आठवाँ रंग!

आठवाँ रंग!
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मैंने कल रंगा था इंद्रधनुष को आठवें रंग से
तोड़ लाई थी एक तारा,
टांग लूंगी अपने खिड़की की वॉल पर
छोटी घंटियों के साथ…

आसमान से उतरते मौसम की हर एक ख़बर
मुझतक लाएंगी हवाएँ,
इनकी झुनझुनाहट से भर जाएगा एकांत।
कभी तो चांद उतरेगा ज़मीन पर,
अपने तारे की तलाश में, उस रात
सनसनाती हवा के मधुर संगीत में,
मुस्कुराएगा वो आठवाँ रंग,
उस सीतारे की आंखों से!
हाथों की उंगलियाँ अभी तक,
रंगी पड़ी है उम्मीदों से…

शायद बादलों में पानी कम था।
चलो अच्छा ही हुआ…
मैं इस रंग से जिंदगी के माथे पर,
लगा दूंगी एक “नज़र का टीका” !!

__कृति चौबे (०५/१२/२०२०)

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