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समालोचन (कृति चौबे)

समालोचन!
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आज फिर पिघला है आकाश
नमी है दिल की ज़मीन पर
आज फिर बोए जाएंगे
कुछ बीज संकल्प के,
हृदय और मस्तिष्क के द्वंद ने
जोत डाली है….


इच्छाओं की ज़मीन को
पथरीली पड़ गई थी
यूं ही पड़ी हुई पीड़ा के भय से!
वर्षों तक ना बरसे मेघ ऐसे झूमकर
ना पनपा का कोई बीज
धरा की गर्भ से…..

अस्तित्व से विरक्त होकर जीना भी
क्या कम पीड़ादायी था!

©_कृति चौबे

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